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नर या नारी जाति है मनुष्य, पर कौन ज्यादा अत्याचारी

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नर या नारी जाति है मनुष्य, पर कौन ज्यादा अत्याचारी
अगर स्त्री और पुरुष की बात की जाए तो स्त्री की तुलना कई देवियों से की जाती है जबकि पुरुषों को कभी भी देव का रूप नहीं कहा गया है. नारी को  को दुर्गा, काली, अम्बा, चंडी इत्यादि जैसे अलंकारो से नवाजा गया और उनके रूप को वंदनीय समझा गया. बेटियों को लक्ष्मी कहा गया पर बेटों के लिए किसी उपमेय शब्द का आविष्कार नहीं हुआ. कहने का तात्पर्य बस इतना है कि हर दॄष्टिकोण से नारी को सर्वोच्च रखा गया फिर ये लक्ष्मी और दुर्गा स्वरूपा नारी दासी कैसे बन गयी. आखिर ऐसा क्या हुआ कि नर भक्षक बन गए और समाज बलात्कारी!
इस विषय पर काफी माथापच्ची की कुदरत ने तो मनुष्य जाति में दो पुतले बनाये फिर यह अंतर कैसे आ गया.. अगर  विश्व के सृजन से भी सोचा जाए तो कुदरत ने दो मनुष्य को बनाया जो थे आदम और ईव। सवाल यह है कि इन दोनों के दिमाग में किनके दिमाग में पहले यह ख्याल आया होगा कि उन दोनों में सर्वोच्च कौन है या फिर दोनों ने मिलकर एक सहयोगपूर्ण, विवेकी और समंता से परिपूर्ण समाज या परिवार बनाने का निश्चय किया होगा। जो भी हो पर इस बात का हल ढूंढ नहीं पा रही कि इस पितृ-सत्तात्मक समाज का आविष्कारक है कौन?
सवाल अनेक हैं पर जवाब किसी बात का नहीं. पूछूं तो पूछूं किससे! माँ से पूछा तो उन्होंने चुप्पी साध ली और कहा बेटी ऐसा ही होता आया है. ऐसा लगा जैसे नारी ने हर रूप में हार मान ली है. बेटी के रूप में जिस तरह परवरिश हुई उससे उलझन सुलझते तो क्या और बढ़ते ही गए। कभी-कभी असमान में उड़ते पंछियों को उड़ते देख सोचती कि क्या इनकी जाति में भी ऐसा होता होगा? क्या इनमें भी नर पक्षी ही यह फैसला लेता होगा कि मादा पक्षी को कब उड़ना है और कितनी दूर तक?… या फिर यह विचार सिर्फ मनुष्य जाति के ही पैदा किये हुए हैं? ऐसा सोचना हास्यास्पद जरूर है पर एक स्त्री का बाल मन केवल ऐसे ही सवाल सोच सकता है शायद।।।। वह भी तब जब उसके उड़ने वाले पंख ही कतर दिए गए हों। शायद संविधान बनाने वालों को भी इतने अनुच्छेद और धाराओं की जरूरत नहीं पड़ी होगी इस देश को चलने के लिए जितनी इस समाज ने स्त्रियों के लिए बनाये हैं।
बाल मन में जो सिर्फ सवाल थे वो यौवन में समस्या बनकर उभरने लगी. तब कहीं जाकर असलियत समझ आई। मुझे तो अब तक यह सिर्फ नर और नारी का समाज लगता था पर सच तो कुछ और ही था। यह नर जाति तो भयानक रूप लेती जा रही है। कुदरत ने जहां मनुष्य जाति के रूप में नर और नारी बनाया था वहीं ये अब दानव और दामिनी का रूप लेती जा रही हैं। जहाँ दोनों का निर्माण सृजन के लिए हुआ था वहीं एक विनाशक और दूसरा अपना अस्तित्व बचाती नजर आ रही है। समाज का यह विकृत रूप देखती हूँ तो सोचती हूँ कि किसने यह स्थिति पैदा की होगी जिसमें जीवन रूपी गाड़ी के दो पहियो में एक ने खुद को सर्वेसर्वा बना लिया है और दूसरा देवी का रूप लेकर भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है। हालाँकि इसी समाज में मैंने कई कुमाता और नारी के  नकारात्मक और  अविश्वसनीय रूप भी देखे हैं पर शायद उनसे मुझे या किसी भी स्त्री को यह अफसोस नहीं होगा कि उसने बेटी के रूप में जन्म क्यों लिया। उनके कर्मों ने  मनुष्य जाति में विषमता पैदा नहीं की,.न ही एक स्त्री को दूसरी स्त्री से ही अपना अस्तित्व बचाने को मजबूर किया। पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह भी समाज का एक दोष है जिसे दूर करना जरूरी है। अपने जीवन में अब तक नर और नारी के कई सकारात्मक और नकारात्मक रूप देखे और आज भी जब उनकी तुलना करती हूँ तो मन में यही सवाल आता है कि “नर या नारी जाति है मनुष्य, पर कौन ज्यादा अत्याचारी?”

9398_295353127278562_701184011_nअगर स्त्री और पुरुष की बात की जाए तो स्त्री की तुलना कई देवियों से की जाती है जबकि पुरुषों को कभी भी देव का रूप नहीं कहा गया है. नारी को दुर्गा, काली, अम्बा, चंडी इत्यादि जैसे अलंकारों से नवाजा गया और उनके रूप को वंदनीय समझा गया। बेटियों को लक्ष्मी कहा गया पर बेटों के लिए किसी उपमेय शब्द का आविष्कार नहीं हुआ। कहने का तात्पर्य बस इतना है कि हर दॄष्टिकोण से नारी को सर्वोच्च रखा गया…फिर ये लक्ष्मी और दुर्गा स्वरूपा नारी दासी कैसे बन गयी? आखिर ऐसा क्या हुआ कि नर भक्षक बन गए और समाज बलात्कारी!


कुदरत ने तो मनुष्य जाति में दो पुतले बनाये फिर यह अंतर कैसे आ गया?.. अगर  विश्व के सृजन से भी सोचा जाए तो कुदरत ने दो मनुष्य बनाए थे ‘आदम और ईव’। सवाल यह है कि इन दोनों के दिमाग में किनके दिमाग में पहले यह खयाल आया होगा कि उन दोनों में सर्वोच्च कौन है…या फिर दोनों ने मिलकर एक सहयोगपूर्ण, विवेकी और समता से परिपूर्ण समाज या परिवार बनाने का निश्चय किया होगा? जो भी हो पर इस बात का हल ढूंढ नहीं पा रही कि इस पितृ-सत्तात्मक समाज का आविष्कारक है कौन?


कभी-कभी असमान में उड़ते पंछियों को उड़ते देख सोचती कि क्या इनकी जाति में भी ऐसा होता होगा? क्या इनमें भी नर पक्षी ही यह फैसला लेता होगा कि मादा पक्षी को कब उड़ना है और कितनी दूर तक?… या फिर यह विचार सिर्फ मनुष्य जाति के ही पैदा किये हुए हैं? ऐसा सोचना हास्यास्पद जरूर है पर एक स्त्री का बाल मन केवल ऐसे ही सवाल सोच सकता है शायद… वह भी तब जब उसके उड़ने वाले पंख ही कतर दिए गए हों। शायद संविधान बनाने वालों को भी इतने अनुच्छेद और धाराओं की जरूरत नहीं पड़ी होगी इस देश को चलाने के लिए जितनी इस समाज ने स्त्रियों के लिए बनाये हैं।


कुदरत ने जहां मनुष्य जाति के रूप में नर और नारी बनाया था वहीं ये अब दानव और दामिनी का रूप लेती जा रही हैं। जहाँ दोनों का निर्माण सृजन के लिए हुआ था वहीं एक विनाशक और दूसरा अपना अस्तित्व बचाती नजर आ रही है। समाज का यह विकृत रूप देखती हूँ तो सोचती हूँ कि किसने यह स्थिति पैदा की होगी जिसमें जीवन रूपी गाड़ी के दो पहियों में एक ने खुद को सर्वेसर्वा बना लिया है और दूसरा देवी का रूप लेकर भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है। हालाँकि इसी समाज में मैंने कई कुमाता और नारी के  नकारात्मक और  अविश्वसनीय रूप भी देखे हैं पर शायद उनसे मुझे या किसी भी स्त्री को यह अफसोस नहीं होगा कि उसने बेटी के रूप में जन्म क्यों लिया। उनके कर्मों ने  मनुष्य जाति में विषमता पैदा नहीं की,.न ही एक स्त्री को दूसरी स्त्री से ही अपना अस्तित्व बचाने को मजबूर किया। पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह भी समाज का एक दोष है जिसे दूर करना जरूरी है। अपने जीवन में अब तक नर और नारी के कई सकारात्मक और नकारात्मक रूप देखे और आज भी जब उनकी तुलना करती हूँ तो मन में यही सवाल आता है कि “नर या नारी जाति है मनुष्य, पर कौन ज्यादा अत्याचारी?”

निहारूं तो अपना ही दिल जलेगा…

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